सैफ़ी बिरादरी का नाम सैफ़ी कैसे पड़ा


(दोस्तों, वैसे तो मैं किसी भी एक धर्म, जाति, या बिरादरी, का पक्षधर नहीं हूँ, मैं हमेशा सिर्फ़ "इन्सानियत" के धर्म की ही बात करता हूँ, और उसी के ऊपर लिखता हूँ, और उसी पर आधारित छोटे-मोटे "समाजसेवा" के काम भी करने की "कोशिश" करता हूँ, लेकिन मेरा मानना है कि अगर हम किसी भी "क़बीले", किसी भी "बिरादरी" से ताल्लुक़ रखते हैं तो हमें उसका "इतिहास" जानना भी बेहद ज़रूरी होता है, कि हम क्या थे ? क्या हैं ? और हमें क्या होना है ?
तो इसी कड़ी में आज मैं "सैफ़ी" बिरादरी के इतिहास के बारे में अपनी थोड़ी सी जानकारी लोगों तक पहुंचाना चाहता हूँ, कि सैफ़ी बिरादरी का नाम सैफ़ी कैसे पड़ा ??)
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"दोस्तों, भारत में मुस्लिम समाज के "लोहार-बढ़ई" का "पुश्तैनी" काम करने वालों को "सैफ़ी" कहा जाता है।


अब से करीब 50 साल पहले गांवों में अन्य बिरादरी के लोग "मिस्त्री" या "मियांजी" या फिर "खान साहब" कहकर पुकारते थे। उस ज़माने में बढ़ई बिरादरी के लोग पूरे साल जी तोड़ मेहनत करके किसानो की खेती के लिए लकड़ी के नये-नये "कृषि-यंत्र", और "हल" आदि बनाते थे। और साथ ही उनकी "मरम्मत" करते थे, और इतना सब कुछ करने के बाद बदले में बढ़ई बिरादरी के लोगों को अन्न और "अनाज" मिलता था जिससे वे अपना "भरण-पोषण" करते थे। इसी बीच देश की अन्य मुस्लिम बिरादरियों में "जागरूकता" आने लगी थी, और सभी बिरादरियों ने अपनी क़ौम का कुछ ना कुछ नया नाम चुन लिया था, जैसे -अंसारी, कुरैशी, अब्बासी, इदरीसी, सिद्दीकी, मंसूरी, मलिक, सलमानी, कस्सार, अलवी, वग़ैरह वग़ैरह।


लिहाज़ा बढ़ई बिरादरी के लोगों में भी "जागरूकता का "संचार" होने लगा और सैफ़ी बिरादरी के कुछ लोगों ने विचार विमर्श किया कि क्यों ना हम लोहार-बढ़ई मिलकर एक अच्छा सा "नाम" रख लें, ताकि मुल्क में हमें भी एक अच्छे से नाम से पुकारा जाए, और हम भी अपने बच्चों को अच्छी "तालीम" दिला सकें, हम भी दूसरी कौमों की तरह "तरक्की" कर सकें।


इसी "मक़सद" को लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर मीटिंग/बैठकों का आयोजन किया जाने लगा।


बिरादरी का नाम रखने की कोशिशों एवं इन बैठकों का आयोजन करने में सैफ़ी बिरादरी के कुछ "मुख्य" एवं "महत्वपूर्ण लोगों" का विशेष योगदान रहा, जिन्होंने दिन-रात मेहनत करते हुए करीब तीन साल तक बिरादरी के लोगों में ऐसी बैठकें कीं, इन लोगों में चंद नाम यहाँ लिख रहा हूँ -
स्वतंत्रता सेनानी और अल-जमियत(उर्दू समाचारपत्र ) के संपादक हज़रत मौलाना उस्मान फारक़लीत साहब (पिलखुवा) मुल्ला सईद पहलवान (अमरोहा) डॉ. मेहरूद्दीन खान(मशहूर लेखक पत्रकार नवभारत टाइम्स) बाबू हनीफ बछरायूंनी, अली हसन सैफ़ी चकनवाला (पत्रकार व लेखक गजरौला) मौजी ख़ान एसीपी दिल्ली पुलिस (रमाला बागपत) हाजी अलीशेर सैफी, युसुफ सैफी, रशीद सैफ़ी सैदपुरीी (शायर व लेखक) मुहम्मद गुलाम जीलानी, मुहम्मद किफायतुल्लाह सैफी, अब्दुल हफीज़ सैफी, कामरेड हकीमुल्लाह सैफ़ी, नज़ीरुल अकरम सैफ़ी, मुहम्मद अतीक़ सैफ़ी(मुरादाबाद) नज़ीर अहमद सैफ़ी (बुलंदशहर) मुहम्मद अली सैफ़ी (बुलंदशहर) सुलेमान साबिर सैफ़ी (पिलखुवा ) एम. वकील सैफ़ी (लेखक दिल्ली) सहित हज़ारों सैफ़ी समाज के बुज़ुर्गों ने बहुत सारी मीटिंग्स की एवं बहुत सारे नाम बिरादरी के लियें प्रस्तावित किये, जिनमे *नूही*, *दाऊदी*, *सैफ़ी*, आदि नामों पर विचार किया गया। जिसमे सबकी राय मिलाकर एक नाम तय किया गया और वो नाम था *सैफ़ी*...!


दोस्तों, यूँ तो बिरादरी का नाम चुनने को लेकर बहुत सारी मीटिंग्स हुईं, लेकिन मार्च 1975 में गुलावठी में एक शानदार "सम्मेलन" हुआ और इस सम्मलेन में नाम रखने को लेकर आगे की "रूपरेखा" तैयार की गई।


इसी कड़ी में "अथक मेहनत" और कोशिशें करने के बाद "6 अप्रैल 1975" को "अमरोहा" में एक "महासम्मेलन" रखा गया, जिसमे बढ़ई बिरादरी के हज़ारों लोगों ने हिस्सा लिया, और इसी "ऐतिहासिक महासम्मेलन" में स्वतंत्रता सेनानी और अल-जमियत (उर्दू समाचार पत्र) के संपादक एवं नेक बुज़ुर्ग हज़रत मौलाना मुहम्मद उस्मान फारक़लीत सैफ़ी साहब जोकि पिलखुवा ग़ाज़ियाबाद के रहने वाले थे, आपके ज़ेरे-साये में बढ़ई बिरादरी का नाम *सैफ़ी* रखा गया। और इस नाम से सभी खुश थे, क्योंकि "सैफ़ी" नाम के मायने बहुत अच्छे हैं, 


जैसे- (1) अंग्रेजी ज़बान में सैफ़ी के मायने, *Super Artisan Industrialist Federation of India*
(2) अरबी ज़बान में सैफ़ के मायने हैं *तलवार* और सैफ़ी के मायने हैं *हिफाज़त करने वाला*। 

(3) फ़ारसी ज़बान में सैफ़ी *बहादुर* और *धनी* को कहते हैं। 

(4) बजरानी ज़बान में सैफ़ी *मोहसिन* और *ख़िदमत-ए-ख़ल्क़* यानि *समाजसेवा* करने वाले को कहते हैं। 

(5) तुर्क़ी ज़बान में सैफ़ी *फ़नकार और हुनरमंद कारीगर* को कहते हैं। 

(6) और सामी ज़बान में सैफ़ी के मायने *तेज़ रफ़्तार* और *ख़ुद्दार* के हैं।।


6 अप्रैल 1975 से लेकर आज तक "6 अप्रैल" को "सैफ़ी दिवस" का "स्थापना दिवस" मनाया जाता है। और पूरे देश में 6 अप्रैल को बड़े-बड़े "सम्मलेन" और "प्रोग्राम" होते हैं, और इस अवसर पर "बुज़ुर्गों", "गरीबों", और "बेसहारा" लोगों की "मदद" के कार्यक्रम किये जाते हैं, और साथ ही साथ, "विद्यार्थियों" और "समाजसेवियों" को "सम्मानित" भी किया जाता है।


"तो दोस्तों, ये जानकारी यहाँ लिखने का "मक़सद" सिर्फ इतना है कि सैफ़ी बिरादरी के जो लोग इस जानकारी से "अनभिज्ञ" हैं, वो इसके बारे में जान जायें, मेरे इस लेख़ का मक़सद किसी एक "बिरादरी विशेष" को "बढ़ावा" देना नहीं है, क्योंकि हमारा हमेशा ही ये मानना है कि "इन्सानियत का धर्म", "इन्सानियत का मज़हब", ही सबसे "ऊंचा" है, बाकी कोई धर्म, कोई मज़हब, कोई बिरादरी, सबकुछ इसके बाद हैं। सबसे पहले हम इंसान हैं, उसके बाद हिन्दू-मुस्लिम, सिख-ईसाई, या बिरादरियां सैफ़ी, अंसारी, क़ुरैशी, मलिक, आदि सभी कुछ बाद में हैं, सबसे पहले "इंसान" हैं, और हमें हमेशा "इन्सानियत" की ही बात करनी चाहिए। और एक "सच्चा इंसान" वही है जिसके दिल में "ख़ुदा" के बनाये हुए सभी प्राणियों, इंसान, जानवर, कीड़े-मकोड़े, पेड़-पौधे आदि सभी के लियें प्यार, दया, और हमदर्दी हो, वही सच्चे मायनों में सच्चा इंसान है, और यही *इन्सानियत* है। 


एक आदम की औलाद आदमी हैं हम और हक़ पर वही जो एक अल्लाह पर यक़ीन रख उसके हुकुम को माने यानि इंसानियत के सबसे प्यारे इंसान नबियों के नबी, नबी ए करीम सल्ल ल्ल लाहो अलेयहि वसल्लम की इत्तबा करे.


मगर सच्चाई इस सबसे अलग है, सैफ़ी नाम वोहरा समाज का कारोबारी नाम है, जो करीब चार सौ साल पुराना नाम है, सैफ़ी मस्जिद और सैफ़ी हॉस्पिटल भी वोहरा समाज का ही है, लोहार-बढ़ई सैफ़ी नाम से कुछ लेना देना नहीं है और अगर सच कहूँ तो वो ये है कि वोहरा समाज के तीन ट्रस्ट काम करते हैं जिसमें एक ट्रस्ट का बैलेंस एक साल पहले तक दस हज़ार करोड़ रूपये था और वो उसी पैसे के ब्याज से देश राजनैतिक पार्टियों को चंदा देने के साथ आरएसएस की हमेशा ही से मदद करते हैं...


वोहरा समाज का दुनियां के कई मुल्कों मैं कारोबार है, इसमें भी दो फ़िरक़े होते हैं एक बरेलवी और दूसरा शिया, दोनों ही के सदर एक होते हैं और सदर को सय्यदना कहा जाता है, जिनका हुकुम तमाम दुनियां के वोहरा समाज यानि असल सैफ़ी नाम के मालिक को मानना ज़रूरी होता है, वोहरा समाज मैं आज भी एक वक़्त का खाना एक ही किचन मैं बनकर समाज के लोगों तक पहुंचाया जाता है...बाकी जानकारी अगले लेख मैं अब इजाज़त...

(शुक्रिया)

(लेखक -एस एम फ़रीद भारतीय)

लेखक, सम्पादक व मानवाधिकार सलाहकार

बुलंदशहर यूपी वेस्ट

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